जनता पर कहर ढाते समर्थक और धृतराष्ट्र की भूमिका में नेता
रायगढ़। बस्तर के युवा पत्रकार स्व मुकेश चंद्राकर की जघन्य हत्या ने पूरे प्रदेश ही नहीं पूरे देश को झकझोर दिया है। हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार बहुत तेजी से इस प्रकरण में कार्य कर रही है और दोषियों को जेल के चारदीवारी के पीछे भेज रही है।
परंतु इस हत्या ने कई सारे सवाल खड़े कर दिए हैं जिनमें से एक बहुत बड़ा सवाल यह है कि आखिर किस नेता की सरस्पती में इस आदमी ने 15 साल के अंदर एक मामूली से रसोईये से अरबो रुपए की सल्तनत खड़ी कर ली और आखिर किस ताकत के दम पर उसने एक जागरूक पत्रकार की हत्या का दुस्साहस भी कर लिया ।
वर्तमान परिदृश्य ऐसा बन पड़ा है कि जनप्रतिनिधियों के समर्थक बहुत ही उद्दंडता पूर्वक जनता पर कहर बरपा रहे हैं और जनप्रतिनिधि न जाने किस मजबूरी में धृतराष्ट्र के भूमिका में चले गए हैं। यह केवल एक जिले की बात नहीं है यह पूरे प्रदेश और देश की बात है। पर प्रश्न यह उठता है की नेता अपने इर्द-गिर्द ऐसा काकस बनने ही क्यों देते हैं । क्या अवसरवादी समर्थक उनकी मजबूरी है, या फिर उन्हें ऐसा लगता है की आम जनता ,बुद्धिजीवियों, विचारकों और चुनाव में गेम पलटने वाले मूक मतदाताओं में उनकी छवि और भीड़ बढाने के लिए इन उद्दंड समर्थकों की आवश्यकता पड़ेगी ही पड़ेगी। अनपढ़ जन प्रतिनिधियों का धड़ा अगर ऐसा सोचता है तो उनकी सोच पर हमें कोई आश्चर्य नहीं होता परंतु यदि कोई पढ़ा लिखा जनप्रतिनिधि जिसे उसकी विद्वता के कारण ही जनता ने अपना नेता स्वीकार किया हो, वह भी अगर अपने आसपास के काकस को किसी मजबूरी के तहत अपने सिर पर ढोता फिर रहा है तो फिर बात गंभीर हो जाती है। सरकारी कार्यालय में ठेके लेने हों माइनिंग की लीज लेनी हो शासकीय भूमि पर कब्जा करना हो या फिर निजी भूमियों पर विवाद खड़े करने हो यह समर्थक सुबह से शाम तक यही काम करते हैं।
और बेबस प्रशासन जनप्रतिनिधि के डर से इनको अपना सहयोग करता रहता है । और एक तीर से दो शिकार करता है पैसे भी कमाता है, समर्थकों को खुश भी रखता है, और अपना रोब भी आम जनता के बीच बनाए रखना है। आखिर एक प्रशासनिक अधिकारी कर्मचारी को इसके अलावा क्या चाहिए।
सत्ता के नशे में चूर जनप्रतिनिधि यह भूल जाते हैं कि उनका अच्छा समय उनके पिछले अच्छे कर्मों के कारण ही आया है लेकिन अब जो बुरे कर्म उनके खाते में जुड़ रहे हैं उसका भुगतान भी उन्हें ही करना है। कहते हैं कि एक दुखी व्यक्ति की हाय ब्लैक कोबरा के जहर से भी अधिक घातक होती है। जनप्रतिनिधि का जनता से रिश्ता एक सेवक की तरह होता है अगर वह अपनी भूमिका भूल कर अपने किरदार को अपने ढंग से जीना शुरु कर देता है तो ऊपर बैठा हुआ दिग्दर्शक उसकी कुंडली के योग पलट देता है।
जीत के बाद अपनी जाति अपने समुदाय का विकास करना कोई बुरी बात नहीं है हर एक को करना चाहिए यह उसका कर्तव्य भी है। परंतु किसी को कुचल कर, किसी का हक छीन कर, किसी को तड़पा कर,किए गए अत्याचार के बाद जानते बूझते अपने समुदाय के साथ खड़े होकर उनका साथ देना गलत है।
बहरहाल भ्रष्ट नेता भ्रष्ट उद्योगपति भ्रष्ट प्रशासन और गुंडागर्दी के गठजोड़ ने एक योग्य युवा को असमय ही मौत की नींद सुला दिया है। अगर जनता अब भी आंखें नहीं खोलती है तो फिर आने वाला समय और भी खतरनाक हो सकता है।